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असली ज़िंदगी या डिजिटल इमेज

आजकल लग रहा है जैसे इंसान @username के साथ पैदा हो रहे हैं।
सुबह की चाय से पहले फ़ोन ऑन होता है, और दिमाग में पहला ख्याल —
आज क्या डाला जाए जो वायरल हो जाए?”

— तो समझिए कि social media addiction silently active है।

बल्कि पहला स्टोरी पोस्ट होता है — “#HelloWorld” के साथ। सुबह उठते ही पहला काम है — “कैमरा ऑन, रियलिटी ऑफ!” अब रोटी, कपड़ा, मकान के बाद ज़रूरतों में एक और चीज़ जुड़ चुकी है — “फॉलोअर्स”। और अगर रील वायरल न हो, तो लगने लगता है जैसे जीवन अधूरा है।

अब इंसान ज़िंदा रहने के लिए नहीं, रील्स बनाने के लिए जी रहा है। — और यही social media addiction की असली पहचान है।

सोशल मीडिया का ये चस्का अब लत बन गया है। सोशल मीडिया पर वायरल होने की इस दौड़ ने एक नई दुनिया बना दी है — influencer culture की। जहाँ हर कोई चाहता है कि उसे “influencer” माना जाए, भले ही उसके पीछे कोई असली टैलेंट हो या सिर्फ कैमरे की चालाकी।

कोई ट्रेंड फॉलो करके, कोई अजीब हरकतों से ध्यान खींचकर, तो कोई ग्लैमर का सहारा लेकर।
थोड़ा ‘attention-grabbing’ अंदाज़ दिखाओ, थोड़ा mysterious एक्सप्रेशन…लड़कों के लिए “gym-selfie trend”, लड़कियों के लिए “glam shot with sad quote” — फिर देखो followers कैसे line लगाते हैं।

पर रुकिए — क्या हम social media पर दिखने के लिए खुद को बेच रहे हैं?
यही सवाल उठता है हमारा ये article— थोड़े ह्यूमर के साथ, थोड़ी हकीकत के साथ और सबसे ज़्यादा… “BMJ” स्टाइल में! 😎

📚 वैज्ञानिक भी बोले – “भाई, दिमाग हिला रखा है!”

कई मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि mental health पर इस तरह की ऑनलाइन परफॉर्मेंस का सीधा असर पड़ता है कुछ आर्टिकल है जैसे :

  • Frontiers Psychology Study: झूठी सेल्फ-प्रेजेंटेशन से डिप्रेशन और डिलीटिंग बिहेवियर बढ़ता है।
  • ITP Live रिपोर्ट: इंफ्लुएंसर कल्चर से मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।
  • FAU रिसर्च: सोशल मीडिया पर खुद को “रोमांटिकाइज़” करने से आत्म-सम्मान घटता है।

🧑‍⚖️ जेंडर नहीं, जनरेशन का मुद्दा:

ये मुद्दा सिर्फ लड़कियों का नहीं है — या सिर्फ लड़कों का भी नहीं।

  • लड़कियाँ क्यूट दिखने के प्रेशर में फंस चुकी हैं।
    हर फोटो में pout, हर reel में झील सी आँखें।
  • लड़के कूल बनने के चक्कर में गाली देने लगे हैं,
    या फिर बाइक पर खतरनाक स्टंट कर viral होने की कोशिश। उस चक्कर जिससे कभी कभी तो उनकी जान भी चली जाती है
  • और जो दोनों नहीं कर पा रहे — वो motivational speaker बन जाते हैं:
    “आप हीरो हो”, “आप सब कुछ कर सकते हो”, “पैसा बनाएँ घर बैठे!” – make money online from home

जिनके followers नहीं बढ़ते… वो फिर कुछ भी कर गुजरने को तैयार हो जाते हैं – attention पाने के लिए।

ये कहना कड़वा है लेकिन सच्चाई यही है।
आज की कुछ लड़कियों के लिए content creation का मतलब बन गया है — “थोड़ा skin दिखाओ, थोड़ा lip bite करो, थोड़ी slow-mo smile… और बस! Follower count बढ़ता जाएगा।”
अब ये content है या clickbait — ये अलग बहस है। लेकिन ये clear है कि वायरल होने के लिए अब कुछ भी करने का दौर चल रहा है। और बाकी जनता वही देखती है — जितना दिखाया जाता है।

वायरल होने की कीमत:

अब तो “viral hona” एक नया career बन गया है। लोगों को दुख है कि वो बीमार नहीं, क्योंकि अगर कोई emotionally heavy story दिखाए, तो views बढ़ते हैं।” कई लोग रिश्तों की सच्चाई छुपाकर fake narratives बना रहे हैं — और जो सच में दुखी हैं, वो कैमरे पर मुस्कुरा रहे हैं।

हर मुस्कान के पीछे बेचैनी है,
हर डांस वीडियो के पीछे घंटों का mental pressure, और हर hashtag #blessed के पीछे #stressed।

हमे असल मे खुद को दूसरों की नज़रों से देखने की आदत हो गई है।

  • “क्या लोगों को ये पसंद आएगा?”
  • “Engagement rate बढ़ेगा?”
  • “Algorithm को खुश किया क्या?”
  • और फिर, जब कोई reel flop होती है — तो खुद से ही नज़रें चुराने लगते हैं।

इस सबके बीच जो सबसे ज़्यादा अनदेखा हो रहा है, वो है हमारी mental health। हर दिन content बनाने का दबाव, validation पाने की चाह, और comparison की आदत — ये सब धीरे-धीरे दिमागी थकान को बढ़ा रहे हैं।

Originality का तो पता ही नहीं। सब “ट्रेंडिंग साउंड” पर नाच रहे हैं, जैसे इंसान नहीं, algorithm के गुलाम हों। हर वीडियो में एक ही बैकग्राउंड म्यूज़िक, एक ही एक्सप्रेशन, बस कपड़े कम और filters ज़्यादा। लड़कों के लिए “shirtless gym pose”, लड़कियों के लिए “pose with sad quote” — अब originality नहीं दिख रही, सिर्फ attention economy चल रही है।

पर अफ़सोस ये है कि लोग असली दर्द दिखाएँ, तो views नहीं आते, और लेकिन अगर content थोड़ा ज़्यादा attention-seeking हो, तो रातों-रात 10k फॉलोअर्स।

तुम content creator हो या बस ट्रेंडिंग टूल?” 😉


🧠 फिल्टर वाली फेम:

अब चेहरे पर जितने तिल नहीं होते, उससे ज़्यादा फिल्टर लगते हैं।
लड़की ने caption “No Filter” लिखा और पीछे एक पूरी टीम खड़ी है — एक ring light, दो beauty apps, और 3 घंटे की एडिटिंग।

Confidence कहाँ है?
बाहर से सब Insta-Perfect दिखता है…अंदर से लोग कन्फ्यूज — “क्या मैं वाकई खुश हूँ या बस वायरल होना चाहता हूँ?”

हर नई पोस्ट एक नया चेहरा बनाती है।
लेकिन “वो असली चेहरा कहाँ गया?”
वही- जो फ्रंट कैमरा ऑन होने से पहले था?

फेक परफेक्शन का दबाव:

अब दुख दिखाना allowed नहीं। क्योंकि algorithm को वो पसंद नहीं आता।

तुम असली रोओगे, तो views नहीं आएंगे। लेकिन fake मुस्कुराओगे, तो लोग DM में पूछेंगे —

“OMG! You’re so inspiring 😍”

हर कोई अपने टूटे रिश्तों पर romantic quotes डाल रहा है, और खुद को समझा रहा है —

“शायद मेरी कहानी में कुछ खास है।”

🔚

सोचिए —
किसी लड़की ने दो साल मेहनत करके इंस्टाग्राम पर motivational वीडियो बनाए।
10K followers आए।

फिर एक दिन उसने थोड़े स्टाइलिश अंदाज़ में एक खास तस्वीर डाली थोड़ी वैसे वाली —
“Caption: just healing ❤️‍🩹”


और overnight 100K फॉलोअर्स।

तो अब वो लड़की नहीं, वो पोस्ट ही उसकी पहचान बन गई।

यही है आज की social media reality —
जहाँ सब viral होना चाहते हैं, पर कोई real नहीं रहना चाहता।

BMJ क्या कहता है- छोड़ न यार

“तुम्हें हर किसी को इंप्रेस करने की ज़रूरत नहीं है — कभी-कभी खुद से मुस्कुरा लेना भी बड़ी बात होती है।” 😊
रोज़ viral नहीं हो रहे? कोई बात नहीं।
रिल्स नहीं चल रही? कोई बात नहीं।
ज़िंदगी असली में जीने वालों को किसी validation की ज़रूरत नहीं होती।

आपका क्या मानना है — असली ज़िंदगी बेहतर है या डिजिटल इमेज? नीचे कमेंट में ज़रूर बताएं!”

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