आज सुबह चाय पीने के लिए बालकनी में बैठा, तो एक चिड़िया को देखा — अपने लिए घोंसला बनाते हुए। एक-एक तिनका लाकर जोड़ रही थी, हर दिशा से उसे मजबूत बना रही थी। तभी मन में एक सवाल उठा — अगर एक चिड़िया भी अपनी ज़िंदगी में इतनी मेहनत करती है, तो हम इंसान क्या कर रहे हैं? क्या हम सिर्फ काम करने, पैसा कमाने और फिर थककर सोने के लिए बने हैं?
कभी सोचा है कि इंसान और बाकी जीवों में क्या अंतर है? पक्षी भी सुबह दाना चुगने जाते हैं, शाम को अपने घोंसले में लौट आते हैं। न कोई किश्त का तनाव, न प्रमोशन का दबाव। चींटी दिन भर मेहनत करती है, मिलकर एक सिस्टम में रहती है और एक सटीक इंजीनियरिंग से अपना घर बनाती है। ये जीव भी एक अनुशासित जीवन जीते हैं। और हम इंसान? सुबह दफ्तर, रात को घर — बस, एक ‘पैसा’ नाम की उलझन बीच में जुड़ गई है।
हमें खाने के लिए कमाना पड़ता है, कमाने के लिए पढ़ाई करनी पड़ती है, पढ़ाई के लिए कोचिंग करनी पड़ती है, और कोचिंग के लिए फीस भरनी पड़ती है — और ये सब कुछ कभी-कभी असंभव सा लगने लगता है।
हमारी ज़िंदगी एक चक्रव्यूह बन चुकी है — मकसद है पेट भरना, लेकिन रास्ता इतना लंबा हो गया है कि कई बार मन और दिमाग थककर चुप हो जाते हैं।
हमने घर बनाए — आराम के लिए। गाड़ियाँ खरीदीं — सुविधा के लिए। बिज़नेस खड़ा किया — ताकि नाम और पैसा दोनों मिलें। सब कुछ खुद के लिए ही किया — इसमें कुछ गलत नहीं है। लेकिन फिर सवाल उठता है —
क्या हम खुद को वाकई में श्रेष्ठ कह सकते हैं?
क्या इंसान बस एक मशीन बन चुका है?
पहले इंसान जंगलों में रहता था, जो मिला खा लिया, और एक-दूसरे का साथ दिया। फिर समाज बना, घर बने, सीमाएं बनीं, और अब हर चीज़ एक रेस बन गई है।
हमने गाड़ियाँ बनाईं, अब ट्रैफिक में फंसे हैं।
मोबाइल बनाया, अब उसमें ही खो गए।
पैसा बनाया, अब उसी के पीछे भागते हैं।
और इस पैसे से हम वही खरीदते हैं — नया मोबाइल, नए कपड़े, नई गाड़ी — बस सब दिखावे और तुलना के लिए। यानी जीवन एक अंतहीन दौड़ बन गया है।
अब सोचिए, अगर सरकार हर महीने हर व्यक्ति को 50,000 रुपये दे — तो क्या 90% लोग फिर भी ऑफिस जाएंगे? शायद नहीं। क्योंकि काम का असली मकसद ‘काम’ नहीं, बल्कि पैसा हो गया है।
इंसान और अन्य जीवों में क्या फर्क है?
हम कहते हैं कि हम “समझदार” हैं। लेकिन जब हम किसी को धर्म, जाति, लिंग या आर्थिक स्थिति के आधार पर नीचा दिखाते हैं, या ट्रैफिक में गाड़ी काटने पर गुस्सा हो जाते हैं, या किसी गरीब को देखकर नजरें फेर लेते हैं — तो ये समझदारी कहां है?
तो इंसान में खास क्या है?
क्या प्रेम हमें अलग करता है?
कई लोग कहते हैं कि इंसान इसलिए अलग है क्योंकि वो प्रेम करता है। माता-पिता बच्चों के लिए त्याग करते हैं। लेकिन जानवर भी प्रेम करते हैं — एक कुतिया अपने बच्चों के लिए जान की बाजी लगा देती है। गाय अपने बछड़े को स्नेह से चाटती है। पक्षी अंडों के लिए न जाने कितनी मेहनत करता है। पेंगुइन मीलों दूर से खाना लाकर बच्चे को खिलाता है। तो क्या हमारा प्रेम सिर्फ थोड़ा अधिक जटिल है?
यहाँ तक कि आजकल प्रेम में भी तुलना होती है — “देखो शर्मा जी का बेटा IIT चला गया।” विवाह भी अब भावना से ज्यादा एक व्यावसायिक गणना बन गई है।
तो इंसान में असल विशेषता क्या है?
हमने खुद को वर्गों में बाँट दिया है
समाज ने इंसानों को grades में बांट दिया है:
- A grade — अधिकारी, नेता, नीति निर्धारक
- B grade — प्रबंधक, योजनाकार
- C & D grade — कार्यकर्ता, निष्पादक
हर किसी को उसकी नौकरी, वेतन या सोशल मीडिया फॉलोअर्स के आधार पर “value” दी जाती है। और जिनके पास ताकत होती है, वही दूसरों को निर्देशित करते हैं।
चींटियों में भी ऐसा होता है — एक रानी होती है, बाकी कार्यकर्ता।
क्या भाषा हमें अलग बनाती है?
क्या हम केवल इसलिए अलग हैं क्योंकि हम बोल सकते हैं? जानवर भी संवाद करते हैं — बिना टेक्नोलॉजी के। हाथी मीलों दूर तक आवाज़ पहुंचा सकते हैं, मधुमक्खियाँ नाच कर दिशा समझाती हैं, कुत्ता सूंघ कर किसी की भावनाएं जान लेता है।
तो बात सिर्फ भाषा की भी नहीं है।
फिर खासियत कहाँ है?
कभी-कभी लगता है कि हम आज के समय में विशालता में नहीं, बल्कि जटिलता में उलझे हुए हैं। भीम जैसे योद्धा अगर आज होते, तो शायद जिम में जाकर वेट उठाने के बजाय उसे चबाकर खा जाते! हम थोड़े तेज चल लें, तो हमारी घड़ी हमें बधाई देती है।
कभी-कभी सोचो कि अगर कोई माइक्रोस्कोपिक जीव हमें देखे — जैसे हम कॉकरोच से डरते हैं — तो शायद वो भी हमें देखकर सोचते होंगे, “इंसान sneeze कर दे, तो हमारी पूरी कॉलोनी उड़ जाती है।” हम किसी भी अन्य प्रजाति के लिए रहस्यमय और शायद डरावने होंगे।
तो फिर क्या हमें खास बनाता है?
शायद हमारी सोचने की क्षमता और विकल्प चुनने की स्वतंत्रता।
हम आत्मचिंतन कर सकते हैं।
हम खुद से सवाल कर सकते हैं — “मैं क्या कर रहा हूँ? और क्यों कर रहा हूँ?”
तो सही काम क्या है?
अगर आपकी मेहनत सिर्फ वेतन तक सीमित है, और उसका समाज पर कोई सकारात्मक असर नहीं पड़ता, तो आप खुद को सफल कैसे मानेंगे?
सही काम वही है जो आपके न होने के बाद भी किसी के काम आता रहे।
- आप डॉक्टर हैं — आपकी बनाई व्यवस्था लोगों का इलाज करती रहेगी।
- आप पुलिस में हैं — आपका बनाया सिस्टम कानून का पालन कराता रहेगा।
- आप शिक्षक हैं — आपके पढ़ाए छात्र समाज को बेहतर बनाएँगे।
लेकिन अगर आपका काम ऐसा है कि आप न रहें तो कोई और आपकी जगह ले ले और फर्क न पड़े — तो क्या आपकी मेहनत किसी जीवन में बदलाव ला पाई?
काम का असली मतलब — मकसद बनाम मुनाफा
आज की दुनिया दो हिस्सों में बँटी है:
- Purpose-driven jobs — जहाँ मकसद किसी की मदद करना होता है
- Profit-driven jobs — जहाँ उद्देश्य सिर्फ लक्ष्यों को पूरा करना और कमाई करना होता है
पहली कैटेगरी मानवता को आगे बढ़ाती है। दूसरी में इंसान एक replaceable part बन जाता है।
तो क्या सब व्यर्थ है?
नहीं। हर काम ज़रूरी है — अगर उसमें इंसानियत जुड़ी हो। फर्क सिर्फ इतना है:
- कुछ काम Legacy छोड़ते हैं
- कुछ काम Salary
आप कौन सा बनना चाहते हैं?
निष्कर्ष: “हम इंसान क्यों हैं?”
शायद इसलिए ताकि हम चुन सकें — कि हम किस तरह जीना चाहते हैं।
अगर हमारा काम किसी की ज़िंदगी में सकारात्मक असर डालता है, तो शायद वही असली इंसानियत है। वरना हम भी उसी चक्र में हैं जैसे चींटियाँ — सुबह निकलना, दाना लाना, वापस आना।
बाकी सब — धर्म, राष्ट्र, जॉब टाइटल, सैलरी स्लिप — ये सब हमने खुद ही बनाया है। प्रकृति को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
जब बारिश होती है, तो झोपड़ी और बंगला दोनों भीगते हैं।
हमारे पास सोचने की शक्ति है। लेकिन अगर हम सिर्फ अपने पेट और पैसे के लिए ही सोचते हैं, तो फिर वाकई में फर्क क्या है हममें और बाकी जीवों में?
इंसान वही है —
जो अपने साथ दूसरों के लिए भी जिए,
और जाने के बाद भी कुछ ऐसा छोड़ जाए
जो दूसरों के काम आ सके।
काम करो, मेहनत करो, लेकिन ये ज़रूर समझो कि क्यों कर रहे हो।
याद रखो —
- अगर आपकी मेहनत किसी की जान बचा सकती है — तो वो नौकरी मूल्यवान है।
- अगर आपकी ड्यूटी किसी की सुरक्षा बन सकती है — तो वो ज़िम्मेदारी अहम है।
- अगर आपके शब्द किसी को जीने की उम्मीद दे सकते हैं — तो आपकी कलम जीवंत है।
- अगर आपकी बनाई सड़क पर कोई बच्चा स्कूल जा सके — तो आप कुछ बड़ा बना रहे हैं।
- अगर आपकी पढ़ाई किसी और की सोच बदल सके — तो आपकी किताबें अमूल्य हैं।
- अगर आपकी आवाज़ किसी को लड़ने की ताकत दे सके — तो वो आवाज़ परिवर्तन ला सकती है।
- अगर आपकी मुस्कान किसी डरे हुए चेहरे पर उम्मीद ला दे — तो आप सच्चे नेता हैं।
आप इंसान हैं — इसका मतलब है, आप बदलाव ला सकते हैं। बस सोचिए, चुनिए, और करिए।